Description
कोई बहुत अधिक पढ़ाकर या अध्ययन कराकर शिष्य गढ़ गया हो, ऐसा नहीं! वो शिष्य बस देखता गया, सुनता गया और बनता गया।
मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज के प्रवचनों में, उनकी लेखनी में, उनसे की गई चर्चाओं में ऐसा लगता था जैसे उन्होंने अपने गुरु विद्यासागर जी महाराज का कोई चश्मा ही पहन रखा हो। सदैव उसी के लेंस से वे देखते थे, बोलते थे। गुरु प्रसंग आने पर उनका वह गदगद भाव, रूँधा गला और सजल नेत्र उस समर्पण और श्रद्धा भाव को प्रकट करते जान पड़ते थे। आचार्य श्री के प्रति उन्होंने जैसे अपने स्वत्व को उसमें विलीन कर दिया था। अकिंचन वृत्ति का ये उत्कर्ष है। “ मैं कुछ नहीं, सब आप”। ऐसे में उनकी आज्ञा ही जैसे समस्त अस्तित्व है। उस आज्ञा में संशय नहीं, चिंतन नहीं। दूर रहकर भी उनकी ये वृत्ति सहज थी। इसमें साधना की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि साधना साधे जाने के लिए है, जो सध गया, चरित्र ही बन गया, उसे क्या साधना।
यह पुस्तक मुनिश्री ने आचार्य श्री के लिए जो लिखा और कहा, उसका संकलन है। दशकों के इस समर्पण के कुछ ही क्षण इसमें दर्ज हैं।